Sunday, December 5, 2021

एक रूमानी एहसास

 


एक रूमानी सा एहसास है अस्सी का दशक


जब न्यूज़ रीडर रुपहले पर्दे की नायिका होती थी और रेडियो पर गूँजती कशिश भरी आवाज़ के मालिक होते थे हमारी दुनिया के नायक, बाकी फिल्में तो हफ्ते में एक बार का ही मसौदा होती थीं एंटीन! रेडियो और दूरदर्शन के  लोग ही दिल में बसे थे! रेडियो भी कैसा एक बड़ी सी टेबल पर रखा जाने वाला, शटर वाली टी वी जिसे अक्सर एक झीना सा घूँघट डालकर रखा जाता था और जिसके ऊपर पीतल का नक्काशीदार गुलदान सजाना उतना ही ज़रूरी था जितना ज़रूरी उसका एंटीना था! जी हाँ टी. वी. पर सिग्नल एंटीना से ही पकड़ में आते थे, उसे सैट करना भी एक कला थी! हर छटे सातवें या पन्द्रहवें दिन किसी ना किसी राजू, पप्पू, बबलू या बंटी को छत पर चड़ा कर एंटीना के सिग्नल सेट कराते थे, टी. वी. का मालिक  मध्यस्थ और  टी. वी. पर सिग्नल आया या नहीं इसे चेक करने के लिए उनकी बिटिया गुड़िया या बबली!


महीने में एक बार चंदा इकट्ठा कर  के वी सी आर पर पूरी रात फिल्में देखी जाती थीं, क्योंकि पैकेज ही तीन फिल्मों का होता था! बुक लाइब्रेरी की तरह हर मार्केट में एक वीडियो लाइब्रेरी भी ज़रूर होती थी! समय था आधी रात तक जाग कर नगीना फिल्म देखने का फिर पूरी रात ये सोचते गुजार देते कि बीन सुनकर कहीं सच में नाग ना आ गया हो!


ये वो ज़माना था जब टी. वी. घर में होने पर रिच फील आती थी और कलर टी. वी. तो लोग झांक झांक कर देखा करते थे, उस वक्त एक बड़ी दरी का घर में होना इसलिए ज़रूरी था क्योंकि टी. वी. देखने आने वालों के लिए बैठने की जगह बन सके!


सर्दियों में गुनगुनी धूप सेंकने के साथ स्वेटर बुनना और मोहल्ले भर की गॉसिप करना मम्मी का फेवरेट टाइम पास होता था! जी हाँ जनाब उस वक्त लोगों के पास फुर्सत हुआ करती थी, आराम से बैठकर चाय की चुस्कियों के साथ शतरंज की चाल चलने की, ताश के पत्तों के साथ एक दूसरे के सुख दुख बाँटने की! स्वेटर के फन्दों के साथ एहसासों की गर्माहट बुन लेने की! ये वक्त था जब लालइमली के एक ही रंग में अलग अलग डिज़ायन के कई स्वेटर बनते थे! 

 

एक लैंडलाइन फ़ोन पूरे मोहल्ले के काम आता था, टेलीफ़ोन की बजने वाली लंबी घंटी बताती थी कि दूसरे शहर पढ़ने गये भइया की एस टी डी कॉल है ! तब एस टी डी नंबर भी याद रखना शहर के पिन कोड जितना ही ज़रूरी था! लकड़ी के बक्से में रखे बड़े से टेलीफ़ोन और उसपर लगे छोटे से ताले ने अपने ही नहीं पड़ोसियों के रिश्तेदारों के भी नंबर भी याद करवा रखे थे!

 

ये वो ज़माना था जब हर महीने आने वाली चिट्टी के लिए डाकिए का इंतज़ार किसी वी आई पी मेहमान की तरह होता था! टेलीग्राम मिलने पर तो दिल शंका से भर जाता था फिर भले ही वो खुशखबरी की पाती ही क्यों ना हो! सिर्फ़ लिफ़ाफे के रंग से भी जाना जा सकता था कि खबर किस बारे में होंगी! साथ  ही किनारे पर कटे या फटे लिफ़ाफ़े का मतलब ही ग़मी होता था, ये वो दौर था जब कुछ कहने की ज़रूरत के बिना भी सब कुछ सुनाई दे जाता था, सब कुछ समझ आ जाता था!  


क्योंकि ये सिर्फ़ एक वक्त या दौर नहीं था! 

ये दौर ए एहसास था!


#jashnezindagi

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