भगवान भास्कर की उपासना का महापर्व है छठ। अर्थात साक्षात ईश्वर का पूजन जो प्रतिदिन प्रकट हो हमें दर्शन देते हैं , जिनसे ही समस्त सृष्टि का जीवन संभव है। परंपराओं की ना भी मानें तो भी प्रकृति पूजन का यह एक अनूठा त्योहार है और पर्यावरण विशेषज्ञों के अनुसार भी इसे प्रकृति के लिए सबसे अनुकूल हिन्दू त्योहार माना गया है और कौन कहता है कि डूबते सूरज को कोई नहीं पूछता क्योंकि इस पर्व का प्रारंभ ही डूबते सूरज को प्रणाम करके होता है।
मूलत: सूर्य षष्ठी व्रत होने के कारण इसे छठ कहा गया है। छठ पूजा चार दिनों तक चलने वाला महापर्व है। इसकी शुरुआत कार्तिक शुक्ल चतुर्थी को तथा समाप्ति कार्तिक शुक्ल सप्तमी को होती है। इस दौरान कई लोग 36 घंटे का कठिन व्रत रखते हैं और अन्न-जल भी ग्रहण नहीं करते।
पहला दिन कार्तिक शुक्ल चतुर्थी ‘नहाय-खाय’ के रूप में मनाया जाता है।
दूसरे दिन कार्तिक शुक्ल पंचमी को व्रतधारी दिन भर का उपवास रखने के बाद शाम को भोजन करते हैं। इसे ‘खरना’ कहा जाता है।
तीसरे दिन कार्तिक शुक्ल षष्ठी को दिन में छठ प्रसाद बनाया जाता है।शाम को पूरी तैयारी और व्यवस्था कर बाँस की टोकरी में अर्घ्य का सूप सजाया जाता है और व्रति के साथ परिवार तथा पड़ोस के सारे लोग अस्ताचलगामी सूर्य को अर्घ्य देने घाट की ओर चल पड़ते हैं। सभी छठव्रती एक नीयत तालाब या नदी किनारे इकट्ठा होकर सामूहिक रूप से अर्घ्य दान संपन्न करते हैं। सूर्य को जल और दूध का अर्घ्य दिया जाता है तथा छठी मैया की प्रसाद भरे सूप से पूजा की जाती है। इस दौरान कुछ घंटे के लिए मेले का दृश्य बन जाता है।
चौथे दिन कार्तिक शुक्ल सप्तमी की सुबह उदियमान सूर्य को अघ्र्य दिया जाता है। ब्रती वहीं पुनः इक्ट्ठा होते हैं जहाँ उन्होंने शाम को अर्घ्य दिया था। पुनः पिछले शाम की प्रक्रिया की पुनरावृत्ति होती है। अंत में व्रति कच्चे दूध का शरबत पीकर तथा थोड़ा प्रसाद खाकर व्रत पूर्ण करते हैं।
लोक परंपरा के अनुसार जिस तरह से व्रत व पूजन किया जाता है उसमें लोक कलाओं का अत्यधिक महत्व है! फिर चाहे वह छठी मैया की वेदी की साज सज्जा हो, लोक गीत संगीत हो या कि फिर प्रसाद के रूप में बनने वाले पकवान! हर स्थान पर कला साहित्य सृजन पूर्णता से दिखायी देता है!
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