Sunday, March 8, 2020

आधी दुनिया, पूरा सच



चलिये आज कुछ अपनी बात करते हैं. अपनी यानि महिलाओं की यानि दुनिया की आधी आबादी की जो किसी ना किसी रूप में आपकी पूरी दुनिया ही बन जाती हैं!


अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस मना रहे हैं हम, जी हाँ आठ मार्च को. हर वर्ष यह इसी तिथि में मनाया जाता है। विश्व के विभिन्न क्षेत्रों में महिलाओं के प्रति सम्मान, प्रशंसा और प्यार प्रकट करते हुए इस दिन को महिलाओं के आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक उपलब्धियों के उपलक्ष्य में उत्सव के तौर पर मनाया जाता है। ठीक उसी प्रकार से जिस प्रकार से होली, दीवाली, क्रिसमस या कोई अन्य त्योहार व उत्सव मनाते हैं.

महिलाओं को समान अधिकार मिले व उन पर बढ़ते हुए अत्याचार को रोकने के लिए आम महिलाओं द्वारा किये गये आन्दोलन का परिणाम है यह महिला दिवस. परंतु कुछ क्षेत्रों में, यह दिवस अपना मूल स्वरूप खो रहा है और अब कई स्थानों पर यह मात्र महिलाओं के प्रति अपने प्यार को अभिव्यक्त करने के लिए एक तरह से मातृ दिवस और वेलेंटाइन डे की ही तरह बस अवसर बन कर रह गया है. हालांकि, अन्य क्षेत्रों में, संयुक्त राष्ट्र द्वारा चयनित राजनीतिक और मानव अधिकार विषयवस्तु के साथ महिलाओं के राजनीतिक एवं सामाजिक उत्थान के लिए अभी भी इसे बड़े जोर-शोर से मनाया जाता हैं। 

इतिहास के अनुसार सबसे पहला दिवस, न्यूयॉर्क शहर में एक समाजवादी राजनीतिक कार्यक्रम के रूप में आयोजित किया गया था। फिर सोवियत संघ ने इस दिन को एक राष्ट्रीय अवकाश घोषित किया और यह आसपास के अन्य देशों में भी फैल गया। इसे अब कई पूर्वी देशों में भी मनाया जाता है। लगभग सभी विकसित व विकासशील देशों में इसे स्वीकार किया जा चुका है.

जी हाँ हमारे देश में भी यह किसी उत्सव की तरह ही मनाया जाता है, कई समारोह व संगोष्ठियाँ आयोजित की जाती हैं, रंगारंग कार्यक्रमों का आयोजन होता है. जहाँ नारी पहले से ही देवी का स्वरूप मानी जाती है, ऐसे देश में इस दिन जगह जगह मंच देकर महिलाओं को सम्मानित किया जाता है, नारी विमर्श का आयोजन किया जाता है, महिला उत्थान की बड़ी बड़ी बातें भी होती हैं. मगर कई बार इन सबमें शामिल होतें हैं दोहरे चेहरे और चरित्र. यूँ तो भारत में महिलाओं को शिक्षा, मतदान का अधिकार और समस्त मौलिक अधिकार भी प्राप्त हैं। धीरे-धीरे परिस्थितियाँ बदल भी रही हैं। भारत में आज महिलाएं हर क्षेत्र में पुरूषों के कंधे से कंधा और कदम से कदम मिला कर चल रही हैं। माता-पिता अब बेटे-बेटियों में कोई फर्क नहीं समझते हैं। परंतु यह सोच समाज के कुछ लोगों तक ही सीमित है।  विडंबना है कि कन्या पूजन करने वाले बहुत से लोग ही अपने स्वयं के घर में बेटी नहीं चाहते. मंच पर सम्मानित करने वाले कई लोग स्वयं के घर में महिलाओं को वो स्थान नहीं दे पाते. पुरूषों की तो बात ही नहीं है स्वयं महिलाएं ही महिलाओं का साथ नहीं देतीं यहाँ, क्योंकि उनकी मानसिकता पर भी कहीं ना कहीं रूढ़िवादिता व नकारात्मकता का प्रभाव है.

सच तो ये है कि नारियों को पूजने वाले हमारे देश में कभी महिला दिवस मनाने की आवश्यकता ही नहीं होती यदि हमारी कथनी और करनी में अन्तर नहीं आया होता. आज आवश्यकता सिर्फ़ ये है कि देवी नहीं बनाइये हमें और ना ही महानता की प्रतिमूर्ति समझिये, बस इतनी सी गुज़ारिश है कि आम इंसान समझ लीजिए. जो सम्मान मंच पर देते हैं वही सम्मान, अधिकार और प्यार मंच से नीचे उतर कर या घर में भी दे दीजिए और साथ ही जिस दिन आपकी भाषा संयत हो जाएगी, आप श्ब्दों की मर्यादा नहीं खोएंगे, बस उसी दिन होगा असली महिला दिवस.

रंजना यादव