Sunday, December 5, 2021

एक रूमानी एहसास

 


एक रूमानी सा एहसास है अस्सी का दशक


जब न्यूज़ रीडर रुपहले पर्दे की नायिका होती थी और रेडियो पर गूँजती कशिश भरी आवाज़ के मालिक होते थे हमारी दुनिया के नायक, बाकी फिल्में तो हफ्ते में एक बार का ही मसौदा होती थीं एंटीन! रेडियो और दूरदर्शन के  लोग ही दिल में बसे थे! रेडियो भी कैसा एक बड़ी सी टेबल पर रखा जाने वाला, शटर वाली टी वी जिसे अक्सर एक झीना सा घूँघट डालकर रखा जाता था और जिसके ऊपर पीतल का नक्काशीदार गुलदान सजाना उतना ही ज़रूरी था जितना ज़रूरी उसका एंटीना था! जी हाँ टी. वी. पर सिग्नल एंटीना से ही पकड़ में आते थे, उसे सैट करना भी एक कला थी! हर छटे सातवें या पन्द्रहवें दिन किसी ना किसी राजू, पप्पू, बबलू या बंटी को छत पर चड़ा कर एंटीना के सिग्नल सेट कराते थे, टी. वी. का मालिक  मध्यस्थ और  टी. वी. पर सिग्नल आया या नहीं इसे चेक करने के लिए उनकी बिटिया गुड़िया या बबली!


महीने में एक बार चंदा इकट्ठा कर  के वी सी आर पर पूरी रात फिल्में देखी जाती थीं, क्योंकि पैकेज ही तीन फिल्मों का होता था! बुक लाइब्रेरी की तरह हर मार्केट में एक वीडियो लाइब्रेरी भी ज़रूर होती थी! समय था आधी रात तक जाग कर नगीना फिल्म देखने का फिर पूरी रात ये सोचते गुजार देते कि बीन सुनकर कहीं सच में नाग ना आ गया हो!


ये वो ज़माना था जब टी. वी. घर में होने पर रिच फील आती थी और कलर टी. वी. तो लोग झांक झांक कर देखा करते थे, उस वक्त एक बड़ी दरी का घर में होना इसलिए ज़रूरी था क्योंकि टी. वी. देखने आने वालों के लिए बैठने की जगह बन सके!


सर्दियों में गुनगुनी धूप सेंकने के साथ स्वेटर बुनना और मोहल्ले भर की गॉसिप करना मम्मी का फेवरेट टाइम पास होता था! जी हाँ जनाब उस वक्त लोगों के पास फुर्सत हुआ करती थी, आराम से बैठकर चाय की चुस्कियों के साथ शतरंज की चाल चलने की, ताश के पत्तों के साथ एक दूसरे के सुख दुख बाँटने की! स्वेटर के फन्दों के साथ एहसासों की गर्माहट बुन लेने की! ये वक्त था जब लालइमली के एक ही रंग में अलग अलग डिज़ायन के कई स्वेटर बनते थे! 

 

एक लैंडलाइन फ़ोन पूरे मोहल्ले के काम आता था, टेलीफ़ोन की बजने वाली लंबी घंटी बताती थी कि दूसरे शहर पढ़ने गये भइया की एस टी डी कॉल है ! तब एस टी डी नंबर भी याद रखना शहर के पिन कोड जितना ही ज़रूरी था! लकड़ी के बक्से में रखे बड़े से टेलीफ़ोन और उसपर लगे छोटे से ताले ने अपने ही नहीं पड़ोसियों के रिश्तेदारों के भी नंबर भी याद करवा रखे थे!

 

ये वो ज़माना था जब हर महीने आने वाली चिट्टी के लिए डाकिए का इंतज़ार किसी वी आई पी मेहमान की तरह होता था! टेलीग्राम मिलने पर तो दिल शंका से भर जाता था फिर भले ही वो खुशखबरी की पाती ही क्यों ना हो! सिर्फ़ लिफ़ाफे के रंग से भी जाना जा सकता था कि खबर किस बारे में होंगी! साथ  ही किनारे पर कटे या फटे लिफ़ाफ़े का मतलब ही ग़मी होता था, ये वो दौर था जब कुछ कहने की ज़रूरत के बिना भी सब कुछ सुनाई दे जाता था, सब कुछ समझ आ जाता था!  


क्योंकि ये सिर्फ़ एक वक्त या दौर नहीं था! 

ये दौर ए एहसास था!


#jashnezindagi

Wednesday, November 24, 2021

नीली कमीज़

 



 

#नीली_कमीज़ 


बॉयज़ का फ़ेवरिट ब्लू और गर्ल्स का पिंक... 


ऐसा ही सुनती और देखती आयी हूँ अक्सर मगर मैं ज़रा उल्टे दिमाग की हूँ। ना जाने कब से और क्यों ये नीला रंग मुझे ऐसा भाया की मन करता था पूरी दुनिया ही रंग दूँ समुद्र जैसी गहराई और आसमान जैसी ऊँचाई वाले नीले रंग में।


इलाहाबाद चतुर्थ वाहिनी पीएसी के सरकारी आवास में रहते थे हम। सरकारी होने के कारण घर बाहर से पीली मिट्टी और गेरू के रंग का होता था मगर घर के अंदर का आधे से ज़्यादा हिस्सा हल्का नीला ही हुआ करता था कभी और इसके साथ ही पापा को ख़ाकी के अलावा नीले के ही ज़्यादा शेड्स में देखती थी। हल्का, गहरा, आसमानी, नेवी रंग की चेक, स्ट्राइप्स या सॉलिड शर्ट। वो शर्ट्स भी अक्सर मेरी ही लायी हुई होती थीं या तब ख़रीदी गयीं थीं जब मैं भी साथ होती थी पापा के। 


मेरी पसंद के चक्कर में पापा ने शायद ही कभी अपनी पसंद के बारे में सोचा होगा और मैंने भी कभी जानना ही नहीं चाहा। बस एक बार यूँ ही बातों बातों में पूछ लिया तब पता चला कि मेरे पापा का फ़ेवरिट कलर है पर्पल यानि बैंगनी। 


बहुत ज़ोर से हँसी थी मैं... #पर्पल... ये भी किसी का फ़ेवरिट होता है क्या....


आप बस मुस्कुरा दिए थे और एक बार फिर तैयार हो गए थे मेरी लायी नीली कमीज़ पहन कर। वो नीली कमीज़ आज भी आपके होने का एहसास कराती है और ये भी कि बैंगनी में ही समाया हुआ है नीला भी।


#मेरे_पापा... ❤

चित्र : गूगल से साभार

Wednesday, November 10, 2021

छठ पर्व : प्रकृति पूजन का दिन

 


भगवान भास्‍कर की उपासना का महापर्व है छठ। अर्थात साक्षात ईश्वर का पूजन जो प्रतिदिन प्रकट हो हमें दर्शन देते हैं , जिनसे ही समस्त सृष्टि का जीवन संभव है। परंपराओं की ना भी मानें तो भी प्रकृति पूजन का यह एक अनूठा त्योहार है और पर्यावरण विशेषज्ञों के अनुसार भी इसे प्रकृति के लिए सबसे अनुकूल हिन्दू त्योहार माना गया है और कौन कहता है कि डूबते सूरज को कोई नहीं पूछता क्योंकि इस पर्व का प्रारंभ ही डूबते सूरज को प्रणाम करके होता है।


मूलत: सूर्य षष्ठी व्रत होने के कारण इसे छठ कहा गया है। छठ पूजा चार दिनों तक चलने वाला महापर्व है। इसकी शुरुआत कार्तिक शुक्ल चतुर्थी को तथा समाप्ति कार्तिक शुक्ल सप्तमी को होती है। इस दौरान कई लोग 36 घंटे का कठिन व्रत रखते हैं और अन्‍न-जल भी ग्रहण नहीं करते।                                                                                                     


पहला दिन कार्तिक शुक्ल चतुर्थी ‘नहाय-खाय’ के रूप में मनाया जाता है।


दूसरे दिन कार्तिक शुक्ल पंचमी को व्रतधारी दिन भर का उपवास रखने के बाद शाम को भोजन करते हैं। इसे ‘खरना’ कहा जाता है।


तीसरे दिन कार्तिक शुक्ल षष्ठी को दिन में छठ प्रसाद बनाया जाता है।शाम को पूरी तैयारी और व्यवस्था कर बाँस की टोकरी में अर्घ्य का सूप सजाया जाता है और व्रति के साथ परिवार तथा पड़ोस के सारे लोग अस्ताचलगामी सूर्य को अर्घ्य देने घाट की ओर चल पड़ते हैं। सभी छठव्रती एक नीयत तालाब या नदी किनारे इकट्ठा होकर सामूहिक रूप से अर्घ्य दान संपन्न करते हैं। सूर्य को जल और दूध का अर्घ्य दिया जाता है तथा छठी मैया की प्रसाद भरे सूप से पूजा की जाती है। इस दौरान कुछ घंटे के लिए मेले का दृश्य बन जाता है।


चौथे दिन कार्तिक शुक्ल सप्तमी की सुबह उदियमान सूर्य को अघ्र्य दिया जाता है। ब्रती वहीं पुनः इक्ट्ठा होते हैं जहाँ उन्होंने शाम को अर्घ्य दिया था। पुनः पिछले शाम की प्रक्रिया की पुनरावृत्ति होती है। अंत में व्रति कच्चे दूध का शरबत पीकर तथा थोड़ा प्रसाद खाकर व्रत पूर्ण करते हैं। 


लोक परंपरा के अनुसार जिस तरह से व्रत व पूजन किया जाता है उसमें लोक कलाओं का अत्यधिक महत्व है! फिर चाहे वह छठी मैया की वेदी की साज सज्जा हो, लोक गीत संगीत हो या कि फिर प्रसाद के रूप में बनने वाले पकवान! हर स्थान पर कला साहित्य सृजन पूर्णता से दिखायी देता है!

Saturday, September 18, 2021

मन में रहना गजानन





हिंदू पौराणिक कथाओं के अनुसार, यह माना जाता है कि गणेश जी का जन्म माघ माह में चतुर्थी को हुआ था। तब से, भगवान गणेश के जन्म की तारीख गणेश चतुर्थी के रूप में मनानी शुरू की गई। हालांकि गणेश चतुर्थी के पर्व पर पूजा प्रारंभ होने की सही समय किसी को पता नहीं परंतु फिर भी इतिहास व लोक कथाओं से यह अनुमान लगाया जा सकता है कि गणेश चतुर्थी लगभग 1630-1680 के दौरान छत्रपति शिवाजी के समय में एक सार्वजनिक समारोह के रूप में मनाया जाता था। उस समय, यह गणेशोत्सव उनके साम्राज्य के कुलदेवता के रूप में नियमित रूप से मनाना शुरू किया गया था। 1893 में बाल गंगाधर लोकमान्य तिलक द्वारा ब्राह्मणों और गैर ब्राह्मणों के बीच संघर्ष को हटाने के साथ ही लोगों के बीच एकता लाने व ब्रिटिश शासन के दौरान बहुत साहस और राष्ट्रवादी उत्साह के साथ अंग्रेजों के क्रूर व्यवहार से मुक्त होने के लिए एक राष्ट्रीय पर्व के रूप में पुन: पुनर्जीवित किया, गणेश विसर्जन की रस्म बाल  गंगाधर लोकमान्य तिलक द्वारा ही स्थापित की गई थी। आजकल तो यह त्योहार हिंदू एवं बहुत से अन्य समुदाय के लोगों द्वारा पूरी दुनिया में मनाया जाता है। अब इसे समुदाय की भागीदारी के माध्यम से मनाना शुरू किया गया। समाज और समुदाय के लोग इस पर्व को एक साथ सामुदायिक त्योहार के रुप में मनाने के लिए बौद्धिक भाषण, कविता, नृत्य, भक्ति गीत, नाटक, संगीत समारोहों, लोक नृत्य करना, आदि क्रियाओं को सामूहिक रुप से करते हैं। ऐसे में यह तय करना भी आवश्यक है कि इतनी बड़ी भीड़ को कैसे नियंत्रित करना है। आजकल उत्सव जहाँ एक बड़ा बाजार उपलब्ध कराते हैं तो वहीं पर्यावरण प्रदूषण के संवाहक भी बन जाते हैं, इसलिए ध्यान रहे कि कहीं ऐसा ना हो कि विघ्न विनाशक के विग्रह विसर्जन के बाद खण्डित होकर अपमानित होते रहें और हमारी आस्था और परंपरा पर व्यंग करते रहें तथा उनका रसायन धीरे धीरे हमारी मृदा और जल में रिसता रहे! गणपति को हरी दूब अत्यंत प्रिय है, यह एक संकेत भी है कि वातावरण में हरियाली और खुशहाली बनाये रखें!
साथ ही यह भी ध्यान रखना आवश्यक है कि उत्सव के माहौल में सामाजिक सौहार्द भी बना रहे, प्रथम पूज्य भगवान के पूजन की सार्थकता तभी है जब हम प्रथम महत्व किसी अन्य को दें! आखिर में बस इतना ही कि

हे गणेश काटो कलेश!!
दुख का रहे ना कोई अवशेष!!
 

Tuesday, September 14, 2021

हिन्दी प्रेम की बिन्दी

 जीवन में भाषा का सबसे अधिक महत्व होता है। भाषा ही वह माध्यम है जिसके द्वारा हम अपने विचारों का आदान प्रदान कर सकते हैं तथा अपनी अनुभूतियों को अभिव्यक्ति प्रदान कर पाते हैं। इसके लिए हम वाचक ध्वनियों का उपयोग करते हैं। मुख से उच्चारित होने वाले शब्दों, वाक्यों का वह समूह जिसके द्वारा अपने भावों को व्यक्त किया जा सके भाषा कहलाती है। सामान्य रूप से भाषा को वैचारिक आदान प्रदान का साधन कहा जा सकता है। यह अंतर्मन में उठे भावों व विचारों को व्यक्त करने का सबसे शक्तिशाली माध्यम है। ग़लत नहीं होगा यदि यह कहा जाय कि भाषा के बिना मनुष्य सर्वदा अपूर्ण है।


संसार में हजारों प्रकार की भाषाएं बोली जा रही हैं जो साधारणतः अन्य भाषा भाषियों के समझ में नहीं आती। भाषा में भी निरंतर परिवर्तन होता आया है, अतः विकास भी हुआ है। भाषा को लिखित रूप में व्यक्त करने के लिए लिपि का प्रयोग किया जाता है। दो अथवा अधिक भाषण की एक ही लिपि हो सकती है। 

  

जन्म के बाद मनुष्य अपने स्थान परिवेश में जो प्रथम भाषा सीखता है, वह उसकी मातृभाषा होती है। मातृभाषा मनुष्य की सामाजिक व भाषाई पहचान होती है। इसके साथ ही किसी राज्य या देश की घोषित भाषा राजभाषा कहलाती है। यह सभी राजकीय कार्यों में प्रयोग की जाती है। उदाहरणतः भारत की राजभाषा हिन्दी है (अन्य अनुसूचित भाषाओं के साथ)


हिन्दी को भारत की राजभाषा के रूप में 14 सितम्बर सन 1949 में स्वीकार किया गया। इसी स्मृति को ताज़ा रखने के लिए यह दिन हर वर्ष हिन्दी दिवस के रूप में मनाया जाता है। यद्यपि केंद्रीय स्तर पर भारत में दुसरी कार्यालयी भाषा अंग्रेजी है। किसी भी भाषा को राजभाषा का स्वरूप तभी दे सकते हैं जब उस भाषा के द्वारा देश में आपसी धार्मिक, आर्थिक, राजनैतिक व्यवहार संभव हो सके। इसके अलावा देश की अत्यधिक आबादी का उस भाषा से परिचय भी आवश्यक है तथा प्रयोग करने वालों के लिए वह भाषा सरल व सहज भी होनी चाहिए। हिंदी इन सभी लक्षणों पर एकदम खरी उतरती है। अतः हिन्दी स्वतः ही राजभाषा की अधिकारिणी है।


गुजराती के महान कवि नर्मदा जी ने हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने का विचार रखा था। आर्य समाज के संस्थापक महर्षि दयानंद सरस्वती ने भी लोक कल्याण के लिए हिन्दी भाषा का प्रयोग प्रारंभ किया था। उनका लिखा आर्य समाज का आधार ग्रंथ सत्यार्थ प्रकाश भी हिन्दी में ही रचित हुआ। हिन्दी मूलतः हिन्दुस्तानी भासा का एक मानकीकृत रूप है, जिसमें संस्कृत के तत्सम तथा तद्भव शब्दों का अधिकाधिक प्रयोग हुआ है। हिन्दी संवैधानिक रूप से भारत की प्रथम राजभाषा तथा सबसे आधी बोली व समझी जाने वाली भाषा है। चीनी भाषा के बाद यह विश्व में सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषा है। यदि हिन्दी की अन्य बोलियों को भी शामिल कर लिया जाय तो यह विश्व में सबसे अधिक समझी जाने वाली भाषा हो जाती है। इसके अतिरिक्त हिंदी विश्व की दस सबसे शक्तिशाली भाषाओं में से एक है।


मैं पुरखों की निशानी हूँ, मैं भारत की जुबानी हूँ।

मैं हिन्दी प्रेम की बिन्दी, मैं नानी की कहानी हूँ।

                                                     ~ रवि यादव


हिन्दी भारत के अलावा नेपाल, पाकिस्तान, मॉरीशस, बांग्लादेश, दक्षिण अफ्रीका, गयाना, सिंगापुर आदि स्थानों पर भी बोली जाती है। हिन्दी भाषा की लिपि देवनागरी है। हिन्दी शब्द का सम्बंध संस्कृत के शब्द सिन्धु से माना जाता है। सिंधु, सिन्ध नदी को कहा जाता था और उसी आधार पर आस पास के क्षेत्र को भी सिन्धु कहा जाने लगा। यही सिन्धु शब्द ईरान में जाकर हिन्दू, हिन्दी फिर हिन्द बन गया। उसका कारण यह रहा कि ईरान की प्राचीन भाषा में स ध्वनि नहीं बोली जाती थी, वहां स को ह रूप में उच्चारित किया जाता था। फ़ारसी साहित्य में भी इसे हिन्द तथा हिंदुश के नाम से ही पुकारा गया था।


हिन्दी हिन्द-यूरोपीय भाषा परिवार के अंतर्गत आती है। भाषाविदों के अनुसार हिन्दी की चार प्रमुख शैलियाँ हैं। उच्च हिन्दी जो खड़ी बोली पर आधारित है। दक्खिनी हिन्दी जो हैदराबाद और उसके आस पास हिन्दी-उर्दू के रूप में बोली जाती है। रेख्ता उर्दू का वह रूप है जो शायरी में पराग किया जाता है। उर्दू हिंदवी का वह रूप है जो देवनागरी की बजाय फ़ारसी तथा अरबी में लिखा गया। हिन्दी का क्षेत्र वृहद है तथा हिन्दी की कई उपभाषाएँ व बोलियाँ हैं। जैसे कि बृज भाषा, अवधी, कन्नौजी, बुंदेलखंडी, बघेली, हरियाणवी, राजस्थानी, भोजपुरी, छत्तीसगढ़ी, मालवी, झारखण्डी, कुमाउँनी, मगही आदि। परन्तु इन सबसे परे हिन्दी के मुख्य दो ही भेद हैं। पूर्वी हिन्दी तथा पश्चिमी हिन्दी। हिन्दी भाषा शब्दावली में मुख्यतः दो वर्ग हैं। तत्सम तथा तद्भव शब्द व देशज तथा विदेशी शब्द।


निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल।

बिन निज भाषा-ज्ञान के, मिटत न हिय को सूल।

विविध कला शिक्षा अमित, ज्ञान अनेक प्रकार।

सब देसन से लै करहू, भाषा माहि प्रचार।

                                                  ~ भारतेंदु हरिश्चन्द्र


हर भाषा उस देश की संस्कृति व सभ्यता को पहचान देती है। किसी भाषा का साहित्य उस समाज का दर्पण होता है। अतः आवश्यक है कि साहित्य सृजन देश की अपनी भाषा में हो। जिसमें वर्तमान समस्याओं समाधानों चुनौतियों व निदानों का समावेश हो। साहित्य का गहन रूप से चिंतन व लेखन हो। इस रूप में हिन्दी साहित्य सदैव ही धनी रहा है। हिंदी साहित्य कथा, कहानी, कविता, गीत, उपन्यास, नाटक आदि से भरा पड़ा है। जो कि संस्कृति का ज्ञान कराने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। उदाहरण के रूप में भक्तिकाल के साहित्य से धार्मिक परंपराओं का ज्ञान मिलता है। हिन्दी साहित्य में भारतीय परंपरा लिपिबद्ध हुई है जो हमें हमारी विरासत से परिचय कराती है। हिन्दी आम जन मानस की भाषा है अतः हिन्दी में रचित उपयोगी साहित्य जन जन तक पहुँचता है तथा उसके हृदय में निवास करता है। हिन्दी में दी गयी प्राथमिक शिक्षा बालकों के मस्तिष्क पर अमिट होती है। इसमें वह अत्यधिक सहज होता है तथा अधिक से अधिक रचनात्मकता दिखा पाता है।


अंत में बस इतना ही कि हिन्दी में लिखिए, हिन्दी में पढ़िए, हिन्दी में बोलिये क्योंकि अल्लामा इक़बाल की क़लम भी यही कहती है -


हिन्दी हैं हम, वतन है हिन्दोस्तां हमारा।


Friday, February 12, 2021

वर्ल्ड रेडियो डे: मन की बातें


 

यह आकाशवाणी है.....
बड़ी ही जानी पहचानी सी यह पंक्ति बहुत ही सही उच्चारण के साथ कानों में मानो मिश्री घोल देने वाली आवाज़ में कई वर्षों से लगातार हमारे कानों में ही नहीं बल्कि हमारे दिलों में भी गूँज रही है और इसका कारण भी स्पष्ट है कि हम भारतीयों के लिए रेडियो मात्र मनोरंजन अथवा जानकारी देने वाला यंत्र नहीं है बल्कि यह एक भावना है जो हम सभी भारतवासियों के मन में बसी हुई है. कम से कम फौजी भाइयों के लिए पेश किया जाने वाला कार्यक्रम जयमाला या नाटिकाओं, झलकियों और प्रहसन को प्रस्तुत करने वाला कार्यक्रम हवामहल तो यही कहानी कहता है, यही कारण है कि "मोदी के मतवाले राही" से शुरू हुआ यह सफर आज भारत के प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी के "मन की बात" तक आ पहुँचा है मगर आवाज़ों का ये सिलसिला शुरू कैसे हुआ और हम तक कैसे पहुँचा ?

ध्वनि तरंगों को रेडियो तरंगों में परिवर्तित करके हम रेडियो संदेश के रूप में प्राप्त करते हैं. रेडियो तरंगें विद्युत चुम्बकीय तरंगें हैं जिन्हें रेडियो रिसीवर द्वारा पकड़ कर पुनः ध्वनि रूप में प्रस्तुत किया जाता है. यह प्रयोग पहली बार सन् 1890 में मारकोनी ने वायरलेस टेलीग्राफी पर काम करते हुए किया. मारकोनी जिन्हें हम रेडियो अविष्कारक के रूप में भी जानते हैं ने 1900 में पहली बार रेडियो संदेश भेजा मगर एक से अधिक व्यक्तियों के पास रेडियो संदेश 1906 में भेजा गया जिसे अटलांटिक महासागर में तैर रहे जहाजों के ऑपरेटरों द्वारा सुना गया. यह रेडियो संदेश फेसेंडेन द्वारा वॉयलिन पर बजाया गया संगीत था.

भारत में रेडियो पर आवाज़ों की अनवरत यात्रा का प्रारम्भ सन् 1921 से माना जाता है, जब मुम्बई में हुए टाइम्स अॉफ इंडिया के एक विशेष संगीत कार्यक्रम को पोस्ट एवं टेलीग्राफ विभाग के सहयोग से प्रसारित किया गया. इस कार्यक्रम को पुणे तक सुना गया था.
इसके ठीक बाद ही नवम्बर 1923 में कलकत्ता रेडियो क्लब की स्थापना हुई और वहाँ से रेडियो प्रसारण प्रारम्भ हुआ. इसके साथ ही 1924 में मुम्बई तथा चेन्नई से भी प्रसारण सुनिश्चित किया गया परन्तु ये प्रसारण सीमित समय के लिए ही हो सके. कई कठिनाइयों तथा अव्यवस्थाओं के चलते इन गैर व्यवसायिक रेडियो प्रसारण क्लबों को बंद करना पड़ा. 
1924 में मद्रास प्रेसिडेंसी क्लब में रेडियो प्रसारण बंद होने के उपरांत पुनः सन् 1927 में मुंबई और कोलकाता में इंडियन ब्रॉडकास्ट कंपनी का शुभारंभ तत्कालीन वायसराय लॉर्ड इरविन ने किया. इनके प्रसारण को लगभग पचास किलोमीटर के क्षेत्र में सुना जा सकता था. अब तक भारत में कई रेडियो क्लबों की स्थापना हो चुकी थी. ये वो दौर था जब रेडियो सेट रखने के लिए अंग्रेज हुकूमत से लाइसेंस लेना पड़ता था. तब पहली बार 23 जुलाई को इंडियन प्रसारण कंपनी ने बंबई स्टेशन से रेडियो प्रसारण शुरू किया था। अतः भारत में प्रत्येक वर्ष 23 जुलाई को राष्ट्रीय प्रसारण दिवस मनाया जाता है।
कई तैयारियों के बाद भी यह कंपनी 1930 में बंद हो गई मगर इस फ्लॉप कंपनी ने नींव रखी आज के सुपरहिट रेडियो प्रसारण की! सन् 1932 में भारतीय सरकार ने इसकी बागडोर अपने हाथ में ली और शुरुआत की इण्डियन ब्रॉडकास्ट सर्विस की ! वर्ष 1936 में जिसका नाम ऑल इण्डिया रेडियो रखा गया, सन् 1957 में इस ऑल इंडिया रेडियो को नया नाम दिया गया जिसे आज हम आकाशवाणी के नाम से जानते हैं. आकाशवाणी का अर्थ है आकाश से मिला संदेश. पंचतंत्र की कहानियों में भी इस शब्द का ज़िक्र मिला है. यहाँ तक कि महाभारत कथा में भी इसका उल्लेख मिलता है. 1936 में मैसूर के एक विद्वान चिंतक एम वी गोपाल स्वामी ने इस शब्द को गढ़ा था. देश के स्वतंत्र होने के बाद आल इंडिया रेडियो को आकाशवाणी ही कहा जाने लगा."बहुजन हिताय बहुजन सुखाय" ध्येय वाक्य वाले आकाशवाणी को अब सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय अधिकृत रूप से देखने लगा ! समय के साथ मात्र 6 स्टेशन से शुरू हुआ यह सफ़र आज पूरे देश में विस्तारित हो चुका है. अंग्रेजी हिंदी एवं क्षेत्रीय भाषाओं में दिए जाने वाले रेडियो कार्यक्रमों का सिलसिला आज भी जारी है! भाषाई भव्यता तथा विवधता के साथ आज भारतीय रेडियो प्रसारण विश्व के सबसे बड़े रेडियो प्सारण संस्थाओं में से एक है.
भारतीय रेडियो की इस दुनिया में एक बड़ी क्रांति तब आई जब वर्ष 1967 में विज्ञापन प्रसारण सेवा का आरंभ हुआ! इसकी शुरुआत विविध भारती और विज्ञापन प्रसारण सेवा मुंबई से की गई! रेडियो प्रसारण स्वदेशी तथा भारत सरकार द्वारा संचालित होने के कारण संचार के एक बहुत बड़े माध्यम के रूप में सामने आया! 
सन् 1970 से तकरीबन 1994 तक रेडियो श्रोताओं की संख्या कई गुना तक बढ़ गई थी. भारत में रेडियो आम जनमानस तक कोई बात पहुँचाने और उनसे जुड़ने का एक बहुत बड़ा माध्यम बन गया था. उस समय लोगों से जुड़ने का कोई और माध्यम हुआ भी नहीं करता था. देश विदेश से जुड़ी सभी जानकारी रेडियो के माध्यम से लोगों तक पहुँचाई जाती थी, जिसमें भारतीय रेडियो एक बहुत बड़ी भूमिका अदा किया करता था. यह स्वदेशी रेडियो प्रसारण था जिसने स्वतंत्रता के पश्चात आये अचानक राजनैतिक बदलाव में भी देश के लोगों को एक सूत्र में बांधे रखा था. इसके द्वारा मौसम कृषि देश विदेश से जुड़ी बातें व खबरें आम आदमी आसानी से प्राप्त कर सकते थे! 
आज भी रेडियो के कार्यक्रम को बनाते समय राष्ट्रीय एकता एवं चेतना बनाये रखने पर विशेष रूप से बल दिया जाता है. लेकिन सरकार के सख्त नियंत्रण के कारण देश के सर्वोच्च न्यायालय ने अपने निर्णय में कहा कि रेडियो तरंगों पर सरकार का एकाधिकार नहीं हो सकता फलस्वरूप शिक्षण संस्थाओं को कैंपस रेडियो खोलने की अनुमति मिली, इसके बाद स्वयंसेवी संस्थाओं को भी अपना रेडियो चैनल खोलने की अनुमति मिल गयी जो कि लोकतंत्र की दिशा में एक महत्वपूर्ण पहल है. परन्तु रेडियो को दुरुपयोग से बचाने के लिए गैरसरकारी संस्थाओं को समाचार तथा समसामयिक चर्चाओं के लिए प्रतिबंधित किया गया. 

रेडियो प्रसारण के द्वारा देश के लोगों को आधुनिकता और नए तरीकों, उन्नत तकनीकि के बारे में भी बताया जाता रहा है. परन्तु समय के साथ ही देश में आए इस आधुनिकीकरण ने टेलेविज़न की जगह ले ली और प्रसारण के मायने ही बदल गये गए, दूरदर्शन के आने के बाद शहरों में ही नहीं कस्बों और गाँव में भी रेडियो के श्रोताओं की संख्या कम होने लगी. लेकिन इसके बावजूद रेडियो देश का एक अनुभवी संचार माध्यम है और एफ एम रेडियो के आने बाद रेडियो का जादू एक बार फिर सर चढ़ कर बोलने लगा है. नये कलेवर, नये अंदाज़ ने पुन: रेडियो को लोकप्रिय बना दिया है!

रेडियो की विश्वसनीयता पर आज भी कोई टिप्पणी नहीं की जा सकती है! इसके द्वारा ना सिर्फ़ गीत संगीत बल्कि ज्ञान विज्ञान की धारा भी निरंतरता के साथ बह रही है! तब कुछ घंटों में सिमट जाने वाला रेडियो प्रसारण आज डायरेक्ट टू होम के द्वारा पूरे दिन यानी चौबीसों घंटे उपलब्ध है! एक वक्त था जब बड़े से भारी भरकम रेडिसो सेट का कान उमेठ कर उस पर प्रसारण सेट करने की कोशिश में प्राप्त होती थी कुछ चर्र मर्र और कई बार बस घर्र घर्र की आवाज़ें, वहीं अब बस एक छोटे से यंत्र के माध्यम से बेहतरीन स्टीरियो क्वालिटी के साथ अब बिना किसी अवरोध के निरन्तरता के साथ अपने मन की बात सुनी जा सकती है और कही भी जा सकती है और ऐसा हो भी क्यों ना, आखिर यही तो है
देश की सुरीली धड़कन....

रंजना यादव
8765777199

Thursday, January 14, 2021

ख़्वाहिशों की खिचड़ी

 





ख़ुशी और समृद्धि का प्रतीक मकर संक्रांति त्यौहार सूर्य के मकर राशि में प्रवेश करने पर मनाया जाता है. इस दिन लोग खिचड़ी बनाकर भगवान सूर्यदेव को भोग लगाते हैं, जिस कारण यह पर्व को खिचड़ी के नाम से भी प्रसिद्ध है. इस दिन सुबह सुबह पवित्र नदी में स्नान कर तिल और गुड़ से बनी वस्तु को खाने की परंपरा है. इस पवित्र पर्व के अवसर पर पतंग उड़ाने का अलग ही महत्व है. 

इस दिन सूर्य उत्तरायण हो जाते हैं और गीता के अनुसार जो व्यक्ति उत्तरायण में शरीर का त्याग करता है, वह श्री कृष्ण के परम धाम में निवास करता है. इस दिन लोग मंदिर और अपने घर पर विशेष पूजा का आयोजन करते हैं. पुराणों में इस दिन प्रयाग और गंगासागर में स्नान का बड़ा महत्व बताया गया है, जिस कारण इस तिथि में स्नान एवं दान का करना बड़ा पुण्यदायी माना गया है.

मकर संक्रांति पर खिचड़ी बनने की प्रथा  कैसे शुरू हुई इसकी भी एक कथा है

, आइये जानते हैं!


मान्यता है कि उत्तर प्रदेश के गोरखपुर से मकर संक्रांति के दिन खिचड़ी बनाने की परंपरा की शुरूआत हुई।


खिचड़ी बनने की परंपरा को शुरू करने वाले बाबा गोरखनाथ थे। बाबा गोरखनाथ को भगवान शिव का अंश भी माना जाता है। 

कथा है कि खिलजी के आक्रमण के समय नाथ योगियों को खिलजी से संघर्ष के कारण भोजन बनाने का समय नहीं मिल पाता था। इससे योगी अक्सर भूखे रह जाते थे और कमज़ोर हो रहे थे। 


इस समस्या का हल निकालने के लिए बाबा गोरखनाथ ने दाल, चावल और सब्जी को एक साथ पकाने की सलाह दी। यह व्यंजन काफी पौष्टिक और स्वादिष्ट था। इससे शरीर को तुरंत उर्जा भी मिलती थी। नाथ योगियों को यह व्यंजन काफी पसंद आया। बाबा गोरखनाथ ने इस व्यंजन का नाम खिचड़ी रखा। 


झटपट बनने वाली खिचड़ी से नाथयोगियों की भोजन की समस्या का समाधान हो गया और खिलजी के आतंक को दूर करने में वह सफल रहे। खिलजी से मुक्ति मिलने के कारण गोरखपुर में मकर संक्रांति को विजय दर्शन पर्व के रूप में भी मनाया जाता है।  


गोरखपुर स्थिति बाबा गोरखनाथ के मंदिर के पास मकर संक्रांति के दिन खिचड़ी मेला आरंभ होता है। कई दिनों तक चलने वाले इस मेले में बाबा गोरखनाथ को खिचड़ी का भोग लगाया जाता है और इसे भी प्रसाद रूप में वितरित किया जाता है।